“चिन्नी” कड़ी-०२

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Chinni-FeaturedPic  चिन्नी का मन तो कर रहा था कि वह मिस्टर घुंघराले के पास जाए, उसकी गहरी आँखों में अपनी आँखें डुबोकर कहे, “हाय! मैं दूल्हे की कज़िन हूँ, तुम शायद दुल्हन के कज़िन हो, राईट?” और इससे पहले कि बंदा जवाब दे, ख़ुद ही फिर बोले, “वैसे मुझे कोई फ़र्क नहीं पड़ता अगर तुम मेरे अपने कज़िन भी होते! इतने हॉट जो हो, डूड!” फिर वह बड़ी बेहयाई से खिलखिलाकर हंसती, और इसका पूरा ध्यान रखती कि उसका दुपट्टा ग़लती से गिर जाए और बंदा उसके अंग प्रदर्शन से पूरी तरह सम्मोहित हो जाए. पर यह सब थोड़े ही करती हैं अच्छी लड़कियां.

अच्छी लड़की थी चिन्नी. बेवश ही हुए कुछ स्वाभाविक अहसासों को छोड़ दें, तो आज से पहले उसने ख़ुद से कभी मर्दों के बारे में इस तरह की बातें नहीं सोची थीं. उसके फ़ुटबॉल प्रेम के चलते उसके ज़्यादातर दोस्त लड़के ही थे. टॉमबॉय तो वह बिलकुल नहीं थी, पर हाँ, ज़्यादातर लड़कियों वाली आदतें भी नहीं थीं उसकी. पुरुष वर्ग के साथ इतना समय बिताने की वजह से लड़कों के प्रति कोई ख़ास आकर्षण नहीं था उसे. और लड़कों से उसकी दोस्ती पर उसके परिवार वालों को कभी कोई ऐतराज़ नहीं था, लिहाज़ा ऐसा भी नहीं था कि वह मर्दों का ध्यान पाने को तरस रही हो.

पर कुछ तो बात थी शादी-ब्याह से जुड़ी रस्मों में, जो कुछ लड़कियों के मन में रूमानियत पैदा कर देती है. और ऐसे प्रभाव से चिन्नी भी अनछुई नहीं थी. उसके जन्म के बाद यह उसके परिवार में होने जा रही पहली शादी थी. जब से सौरी भैया ने एमबीए पूरा किया था, तभी से घर के औरों की तरह चिन्नी को भी उनकी शादी का इंतज़ार था. और दो महीने पहले आँचल की तस्वीर पहली बार देखकर भैया को शर्म से लाल होते देखने के बाद चिन्नी के मन में भी कुछ कुछ हुआ था. एक अनोखा सा अहसास होने लगा था यह सोचकर कि इस दुनिया में कहीं कोई है जो उसके लिए भी बना है.

हाँ तो फिर, मिस्टर घुंघराले. बंदा अब भी हॉल के दूसरे छोर पर था. एक परिवार के जिन चार लोगों के साथ खड़ा था, चिन्नी ने शायद कहीं देखा था पहले उन्हें. उसकी अपनी उम्र की एक लड़की कुछ सुनाये जा रही थी, और बंदा बड़े ध्यान से सुन रहा था. छोरी बड़ी गोरी थी, और उसकी शक्ल से चिन्नी को माँ दुर्गा की मूरत याद आ रही थी. कद में उससे ज़रा ऊंची थी, और बदन उससे कुछ ज़्यादा सुडौल था. पर चिन्नी इस सब से परेशान नहीं हुई. लड़की के चेहरे के हाव भाव, बॉडी लैंग्वेज, सब कुछ ज़रुरत से ज्यादा ही अच्छा था, इतना कि ऊब जाएँ लड़के. ज़ाहिर था कि वह गोलकीपर टाईप की थी. जिनके नसीब में गोल मारना नहीं लिखा होता.

तो साहब उस शाम, अपनी ज़िन्दगी में पहली बार चिन्नी ने एक अलग किस्म का गोल, यानी लक्ष्य, बनाया, जो कि करीब छ: फुट ऊंचा था, जिसकी भूरी आँखें थीं, और ओ नो, वह तो चलने भी लगा! मिस्टर घुंघराले अब खाने के स्टॉल्स की तरफ़ बढ़ रहे थे.

अचानक जैसे गोल और गोलकीपर एक हो गए. उसे पाने के लिए चिन्नी को समझ आया कि उसे ख़ुद को हिटर और गेंद दोनों में तब्दील करने की ज़रुरत है. क्यों नहीं!

पहला नियम. ऑफ़ेन्स के समय कभी एक जगह खड़े मत रहो. वह बढ़ने लगी, मेहमानों के अलग अलग झुंडों के बीच पासिंग करती रही, कभी किसी को हैलो कहती, तो कभी किसी टक्कर से बचती हुई ख़ुद को ड्रिबल करती रही. कभी कभी रुक भी जाती, वर्ना कहीं किसी खुले गैप से बंदा अपनी नज़र का शॉट मार रहा हो और वह दबोच न पाए तो?

चिन्नी का अनुमान था कि साहब पहले सलाद सैक्शन की तरफ़ जायेंगे, लेकिन गया वह दूर पानी के काउंटर पर. उस फ़ील्ड में लगी भीड़ में एक सीधा शॉट मिल पाना मुश्किल था. अटैक को स्विच करने में ही समझदारी थी. ज़रुरत थी एक लम्म्म्म्बे पास की. वह तेज़ी से आईसक्रीम कॉर्नर की ओर बढ़ी जो फ़ील्ड के एक अलग हिस्से में था, और काफ़ी ख़ाली जगह थी वहां.

बंदा एक ही बार में पूरा गिलास ख़ाली कर गया. प्यासा था, वैरी गुड. पर चिन्नी की सोची-समझी नपी-तुली पोज़ीशन के बावजूद वह उसे देख ही नहीं रहा था. वह मुड़ी, और अपनी पीठ अपने गोल की तरफ़ करके दिमाग़ में आ रहे सारे उपायों का एक टीम-सा झुण्ड बनाकर अगली चाल तय करने लगी. फ़ैसला यह हुआ कि दायीं तरफ़ ढेर सारे रंगीन युवाओं में घुलकर खो जाने के मुक़ाबले बाईं ओर से कॉर्नर किक करना बेहतर होगा, जहां सिर्फ़ बुज़ुर्ग मेहमान ही थे.

वह तुरंत उस तरफ बैठे बड़े बूढ़ों के पास जा जाकर उनकी ख़ातिर करने लगी. कुछ मिनटों तक वह पूछती रही कि खाना ठीक है, उन्हें कुछ चाहिए तो नहीं, वगैरह. फिर अचानक देखा कि नक़ली बादलों वाले स्टेज के पास से मिस्टर घुंघराले उसे ही देखे जा रहे हैं.

ये हुआ पहला गोल!

पर चिन्नी ने बंदे को इनाम में एक ख़ाली-सी गुज़रती नज़र से ज़्यादा कुछ भी नहीं दिया. स्कोर में आगे थी, इसलिए गेंद को कुछ देर और अपने कब्ज़े में रखने में कोई ख़तरा नहीं था.

ऐसा नहीं था कि इस तरह पीछा करवाने में पीछा करने से कुछ कम मेहनत लगनी थी, पर चिन्नी परखना चाहती थी कि किसी को तरसाने में कैसा मज़ा आता है. एक काबिल मेज़बान की तरह दो बूढ़ी अम्माओं को एक ऐक्स्ट्रा कुर्सी और कुछ गरम पीने का इंतज़ाम करते हुई भी वह अपने ऐंगल ऐसे बनाए हुए थी कि बंदा उसे ठीक से निहार पाए.

कुछ ही समय में चिन्नी की निहायत दर्जा शराफ़त का नाजायज़ फ़ायदा उठाया जाने लगा. उनमें से एक महिला ने उससे कहा कि जाकर उनकी बहू को कहीं से ढूंढ लाये.

चिन्नी को लगा कि बहुत हुआ तरसाना. खेल के अगले पड़ाव के लिए उसे गेंद को उठाकर बीच में फिर से फेंकना चाहिए. अब आँखों आँखों में ही हीरो को बांधने का समय आ गया था, क्योंकि उसने सुना था कि नज़रों के इशारे मर्दों से कुछ भी करवा सकते है. पर जब तक वह आंटियों वाला काम एक छोटे लड़के को सौंपकर मुड़ी, मिस्टर घुंघराले वहां से ग़ायब हो चुके थे!

चिन्नी की नज़रों ने झट चारों तरफ़ का मुआयना किया, जैसे अक्सर मैच के आख़िरी पलों में खिलाड़ी की नज़रें फ़ील्ड, स्कोरबोर्ड और स्टैंड्स का मुआयना करती हैं. पर गोल का कहीं भी नामोनिशान नहीं था.

वह सर्किट हाउस के मेन गेट की ओर लपकी. वहां नज़र आया वह. मोबाईल पर बात करता हुआ पार्किंग लॉट की तरफ तेज़ी से बढ़ रह था.

चिन्नी ने सोचा कि बाहर निकलकर बंदे के आगे आगे चलेगी, ताकि उसे पूरा पूरा मौका मिल जाए उसकी पीठ पर गुदे तीर और दिल वाले टैटू को ताड़ने का. इसी बहाने वह उसे अपनी मटकती कमर का नज़ारा भी करा देगी.

पर बस दो ही कदम पर वह अचानक रुकी जब देखा कि पापा आ रहे हैं. मिस्टर घुंघराले के पास.

जसराज देवगढ़िया उस युवक से मिले, हाथ मिलाया और कुछ हल्की बातचीत की जो इस दूरी पर चिन्नी को सुनाई नहीं दी. वह अपनी कार चलाकर निकला तो उन्होंने हाथ हिलाकर रवाना भी किया उसे, पर हड़बड़ी में चिन्नी ने यह भी नहीं देखा कि गाड़ी कौन सी थी.

आख़िरी सीटी बज चुकी थी. एक गोल दाग लेने के बावजूद आख़िर उसकी हार हुई थी.

***

एक घंटे बाद सगाई वाले जोड़े के साथ औपचारिक फ़ैमिली फ़ोटोज़ के लिए पोज़ करते हुए चिन्नी के चेहरे पर बड़ी उजली सी मुस्कान थी.

अपनी हार को स्वीकार कर लिया था उसने. कम से कम थोड़ी बहुत जानकारी तो उसने बातों बातों में निकाल ही ली थी पापा से. मिस्टर घुंघराले का नाम था नमन राठौर. वह उनके जयपुर वाले डिस्ट्रीब्यूटर का बेटा था. और इस सगाई में आने में असमर्थ अपने माता पिता का प्रतिनिधित्त्व करने अकेले ड्राईव करके रॉयलपुर आया था. यह तय था कि जयपुर वाली शादी में उससे मुलाक़ात ज़रूर होगी.

चुनांचे अपनी छोटी सी नाक़ामयाबी को भुलाकर चिन्नी दुल्हन से बतियाने लगी. यह आसान था, क्योंकि हालांकि दोनों तरफ़ के विस्तृत परिवारों की टुकड़ियां बारी बारी जोड़े के साथ अपनी तस्वीरें खिंचवा रही थीं, चिन्नी हर तस्वीर में थी, क्योंकि उसे आँचल ने ज़िद करके अपने बगल में खड़ा कर रखा था. फ़ोटोज़ के बीच में ज़रा सी बातचीत से ही चिन्नी को समझ में आ गया कि आँचल बड़ी प्यारी है. ख़ुश हुई कि सौरी भैया की होने वाली पत्नी उनसे बेहद प्यार करती हैं. पर साथ ही यह भी सोचने पर मजबूर हुई कि आँचल जी क्या सचमुच इसी दुनिया में रहती हैं? उन्हें स्पोर्ट्स बिलकुल पसंद नहीं था, क्योंकि उससे सिर्फ़ वक़्त की बर्बादी होती है. अच्छा जी? और समय का सदुपयोग किस महान कार्य से होता है भला? उनकी फ़ैशन डिज़ाईनिंग से?

ऐसा लगा कि आँचल ने उसके दिमाग़ को पढ़ लिया. क्योंकि दसियों फ़ोटोज़ के बाद अब उन्होंने बड़े प्यार से चिन्नी से ज़रा सरकने को कहा ताकि उनकी लाड़ली कज़िन लावण्या उनके पास खड़ी हो सके.

पता चला लावण्या वही गोलकीपर कन्या है माँ दुर्गा की सूरत वाली. फ़ोटो खिंचवाने से पहले उसने अपने उबाऊ और ज़रुरत से ज़्यादा मिठास वाले अंदाज़ में मुस्कुराकर आँचल को गले लगाया.

“बॉयफ़्रैंड कहाँ है तुम्हारा?” लावण्या को कोहनी मारकर आँचल ने फुसफुसाकर पूछा.

लावण्या ने शर्माकर उतने ही धीमे स्वर में जवाब दिया, “जल्दी वापस जाना था नमन को.”

यह सुनते ही चिन्नी की आँखें बुरी तरह फैलीं, और कैमरे को भी ऐन उसी वक़्त क्लिक होना था.

***

उस रात चिन्नी को ज़रा भी नींद नहीं आयी. पर सुबह साढ़े पांच बजे तक उसने फैसला कर लिया था. बहुत हो गयी उदासी. अब ख़ुद पर तरस खाना बंद.

बाहर अब तक अँधेरा था. पर उसने जॉगिंग करने का फ़ैसला किया.

कान में ईयरप्लग ठूंसे, अपना ऐमपीथ्री प्लेयर चालू किया, और फ़ौरन रौनक लेन के चौड़े फुटपाथ पर जाकर दौड़ने लगी. उम्मीद की कि हैवी मैटल की रूखी, ग़ुस्सैल आवाज़ें उसके दिमाग से वह सारी गंदगी खुरचकर निकाल देंगी जो कल शाम उसने ख़ुद ही से जमा कर ली थीं. अपनी आत्मा को साफ़ करना चाह रही थी चिन्नी.

ऊंचे वॉल्यूम के बावजूद उसे अपने पाउच में मोबाईल पर आ रहे एक मैसेज की भनभनाहट महसूस हुई. एक बार तो उसने तवज्जो नहीं दी, लेकिन फिर दो चार मैसेज और भनभनाये, तो वह अगले मोड़ पर रुकी और मोबाईल निकालकर देखा.

एक अनजान नंबर ने कुछ तसवीरें भेजी थीं. उसीके फ़ोटोज़ थे.

गॉड! उसे नहीं पता था कि वह इतनी ख़ूबसूरत है. हालांकि सारे क्लोज़ अप ही थे उसके, इसमें कोई शक़ नहीं था कि कल शाम ही के थे.

इससे पहले कि वह बूझने की कोशिश ही करती कि भेजने वाला कौन है, मोबाईल फिर भनभनाया. इस बार बस मैसेज था. उसी नंबर से.

“हैव अ नाईस डे! – नमन राठौर.”

नए दिन की पहली किरण ने चिन्नी के चेहरे को रोशन किया.

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