“चिन्नी” कड़ी-०३

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Chinni-FeaturedPic  पांच और छ: कोनों वाले सिंथेटिक टुकड़ों की सिलाई करती नसरीन की मशीन की घरघराहट सुनकर चिन्नी हमेशा की तरह आज भी भावुक सी हो गई थी. अपने बच्चे को जन्म देती हुई एक माँ की कराहों की याद दिला रही थी उसे वह आवाज़. एक और ख़ूबसूरत फुटबॉल जो पैदा होने वाला था.

पिछले कई सालों से चिन्नी का इतवारों को फैक्ट्री आना काफ़ी कम हो गया था. जब वह छोटी थी, तब उसे नसरीन की माँ ज़ोहरा और बाक़ी औरतों को अपनी पैडल वाली मशीनों पर काम करते देखने में बड़ा आनंद आता था. हालांकि समय काफ़ी ज़्यादा लगता था, पर उनकी कारीगरी आज की मोटर वाली मशीनों के नतीजों जितनी ही उम्दा थी.

शायद उन्हीं इतवारों में, उन खुशमिजाज़, मेहनती और अपने काम में माहिर औरतों की संगत ने ही चिन्नी के मन में फुटबॉल के लिए प्रेम पैदा किया था. एक दिन बड़ी उत्सुकता से उसने उन सब से पूछा था, कि गेंद बनाने के साथ साथ वह सब खेलती भी क्यों नहीं फुटबॉल? सबका मिला-जुला जवाब बस एक चौंका-सा ‘धत्त!’ वाला ठहाका था. पर उसके बाद, मज़ाक में पुचकारते हुए ही सही, ज़ोहरा ने उससे जो कहा, वह उसे अब तक याद था. “जब तुम बड़ी हो जाओगी, हम सब की तरफ़ से तुम खेलना फुटबॉल!”

लगभग पंद्रह मिनट में नसरीन ने आख़िरी टांके की सिलाई करके चिन्नी को थमा दिया. पर आज उसके ख़ूबसूरत चेहरे पर हमेशा वाली मुस्कान नहीं थी.

और चिन्नी को पता था क्यों नहीं थी. उड़ती ख़बर यह थी कि देवगढ़िया स्पोर्ट्स कंपनी अब सिलाई की प्रक्रिया ही पूरी तरह बंद करने वाली है. कुछ और थर्मल बॉन्डिंग मशीनें खरीदने के सुझाव को इसी दिशा में एक कदम की तरह देखा जा रहा था. केवल स्त्रियों वाली इस सिलाई इकाई का बंद होना तो फिर स्वाभाविक था. सब के सब एक ही झटके में बेरोज़गार होने वाले थे.

चिन्नी कभी बिज़नैस के मामलों में नहीं पड़ती थी. पर आज इन महिलाओं के लिए, जिनमें से ज़्यादातर दादाजी के समय के कुछ वफ़ादार मुलाज़िमों के परिवारों से थीं, कुछ न कुछ तो उसे करना ही था.

पर वह पापा और बलराज चाचा को फिलहाल परेशान नहीं करना चाहती थी, क्योंकि सौरी भैया की शादी जो होने वाली थी. वैसे भी, इस मामले का आख़िरी फ़ैसला लिए जाने में अभी बहुत समय था.

लिहाज़ा चिन्नी ने फ़ैसला किया कि अपनी सारी सोच और मेहनत जयपुर वाली शादी पर लगा देगी. हाँ, सच पूछा जाए तो, नमन राठौर पर.

***

जयपुर का मौसम खुशगवार था, न ज़्यादा गर्म न ज़्यादा ठंडा. चिन्नी की आँखों ने सड़कों के किनारे वाले नीम के पेड़ों की हरियाली से बड़ा सुकून महसूस किया.

दुल्हन के घरवालों द्वारा इंतज़ाम किये गए एक महलनुमा बंगले में जैसे ही दूल्हे के परिवार वालों ने डेरा जमाया, चिन्नी ने नमन को वहां देखा और बेहद उत्साहित हुई. शादी में सारे पुरुषों को पहनने के लिए साफे खरीद लाने का काम नमन को दे रहे थे बलराज चाचा.

“मैं भी साथ जाती हूँ,” चिन्नी ने अचानक ऐलान किया.

“अच्छी बात है,” नमन ने प्रोत्साहन देते हुए कहा. “मैं इन्हें दुकानें दिखा दूंगा, और ये अपनी पसंद से साफे चुन लेंगी.”

“ओके, पर ज़्यादा देर मत करना,” चाचा को बस इतना ही कहना था.

“फ़ोटोज़ के लिए थैंक्स,” नमन की कार में घुसते हुए चिन्नी ने अपने सबसे विनीत और मीठे स्वर में कहा. जवाब में वह मुस्कुराया. चिन्नी को शक़ हुआ कि ज़रा सा शर्माया भी. या बस यूं ही ऐसा गुमान हुआ था उसे?

नमन की ड्राइविंग अच्छी थी, और वह उसे जोहरी बाज़ार जाने के रास्ते में पर्यटकों की रूचि वाली कुछ जगहें दिखाता रहा. पर चिन्नी का ध्यान उन सब पर कहाँ था.

वहां पहुंचकर जब वह साफे बेचने वाली दुकानों के कटरे की ओर चलने लगे, चिन्नी ने स्थिति का जायज़ा लेने की कोशिश की. “तो फिर कब बन रहे हैं हम रिश्तेदार?”

नमन अचानक स्थिर हुआ, और हैरान-सा पूछा,“रिश्तेदार?”

“और क्या? मैं दूल्हे की कज़िन हूँ, और तुम्हारी गर्लफ़्रैंड दुल्हन की कज़िन है, तो जब तुम दोनों की…”

“गर्लफ़्रैंड?” नमन ने लगभग हकलाते हुए पूछा. फिर बुरी तरह हंस पड़ा. “तुम्हें लगा लावण्या सचमुच मेरी…?”

अंय? नहीं है? पर जिस तरह से सगाई वाली पार्टी में नमन का नाम सुनकर वह शर्म से लाल हुई थी, चिन्नी को तो पक्का यकीन हुआ था कि ‘कपल’ हैं दोनों.

पर उसे अंदाज़ा लगाते छोड़, उसके दिल को बीच हवा में लटकाकर, नमन आगे बढ़कर साफे देखने लग गया था. अपनी विचलित हालत की वजह से चिन्नी उसकी कुछ ख़ास मदद नहीं कर पाई, तो नमन ने ख़ुद ही से कुछ शानदार बांधनी वाले साफे पैक करवा लिए.

“एक सेकंड,” कार की तरफ़ लौटते समय नमन ने रुककर कहा, और एक मीना-जड़ा लॉकेट खरीदा जो एक काले धागे में लटका था. “उम्मीद है तुम्हें अच्छा लगेगा.”

वह चौंकी. उसने वह उसके लिए खरीदा था!! मन तो किया वहीं कसके गले लगा ले उसे.

“न न, मैं नहीं ले सकती.” क्या कहा? ख़ुद से अचानक हताश हुई वह.

“क्यूं नहीं?” नमन ने होंठ सिकोड़कर मिन्नत की.

“एक शर्त पर लूंगी,” दूसरा मौका पाते ही चिन्नी अचानक उसका फ़ायदा उठाकर बोली. “तुम्हें मेरे साथ लस्सी पीनी पड़ेगी.”

लस्सी के बाद उन्होंने साफे रखकर कार को ताला लगाया, फिर चलकर सड़क के उस पार हवा महल देखने गए. वहां जालियों वाली एक खिड़की से बाहर झाँकते हए नमन ने बताया, “यहाँ से बाहर की दुनिया का नज़ारा करती थीं पुराने रजवाड़ों की औरतें. उन्हें इजाज़त नहीं मिलती थी न पब्लिक में खुलेआम निकलने की.”

“इजाज़त? किससे?” चिन्नी ने तुरंत सफ़ाई माँगी. वैसे तो उसे उस पक्षपाती इतिहास के बारे में पता था, फिर भी वह इस बंदे को सताना चाहती थी.

“उनके मर्दों से, ऑफ़ कोर्स,” नमन ने कंधे उचकाकर कहा, जैसे कि ज़ाहिर सी बात हो.

“क्या मतलब है ‘ऑफ़ कोर्स’ का? अगर तुम उन दिनों पैदा हुए होते, क्या तुम भी लावण्या को इजाज़त नहीं देते कि…?”

“ओह्हो! फिर वही? भई, लावण्या और मैं बस बचपन के दोस्त हैं,” लगभग रुआंसा सा बोला वह, जैसे कि अपनी बेगुनाही की गुहार लगा रहा हो. चिन्नी ख़ुश हुई कि यह बात निकलवाने की उसकी कोशिश आख़िर क़ामयाब हुई.

“एक दूसरे को बॉयफ़्रैंड गर्लफ़्रैंड कहना एक पुराना जोक है हम दोनों के बीच का. हम सच में थोड़े ही…”

“हां-आं, ठीक है ठीक है,” वह मुंह बनाकर बुदबुदाई, और पलटकर ख़ुशी से फूली न समाती हुई चुपचाप चल पड़ी.

***

देखते ही देखते जयपुर का आख़िरी दिन आ गया. पिछली रात को ब्याह की रस्में सकुशल संपन्न हो चुकी थीं. नव-विवाहित दम्पति को फ़टाफ़ट हनीमून वाली स्विट्ज़रलैंड फ़्लाईट के लिए दिल्ली रवाना कर दिया गया था.

इन दो दिनों में चिन्नी का मन कई बार ललचाया था ग़लती से नमन के साथ शारीरिक संपर्क बनाने को. पर चूंकि वह अच्छी लड़की थी, इसलिए उसने परिवार के ऐसे शुभ अवसर की मर्यादा को भंग नहीं किया. पर अपनी भड़ास मिटाने के लिए उसने नमन को यहाँ वहाँ ख़ूब दौड़ाया. यूं तो वह दूल्हे और दुल्हन दोनों के परिवारों को एक समान ही जानता था तो दोनों की तरफ़ का माना जा सकता था, पर चिन्नी ने उसको अपनी, यानी दूल्हे की इकलौती कज़िन की, सेवा में लगाकर उसे पूरी तरह ‘लड़कीवाला’ बना डाला था. उसे यह तक लगा कि उसके धौंस वाले अंदाज़ ने नमन को उसका हुक्म बजा लाने में मज़ा भी दिलाया था.

पर अब समय हो चला था. अगले दिन वह वापस रॉयलपुर में होती, और नमन अपनी ज़िन्दगी में मसरूफ़ हो जाता. और उसे डर था कि क्या पता, जिस लावण्या को उसने गोल न मार पाने वाले गोलकीपर टाईप की लड़की समझा था, वह नमन का पीछा करके ख़ुद ही उसे स्कोर न कर ले.

“ओ नो! मैं अपना मोबाईल अपने कमरे में ही भूल आई,” बंगले के बाहर कदम रखते ही चिन्नी ने ऊंची आवाज़ में कहा. देवगढ़िया परिवार का सारा सामान गाड़ियों में चढ़वा रहे नमन ने तुरंत आज्ञाकारी भाव में सर हिलाकर कहा, “मैं लेकर आता हूँ.”

“बाथरूम में देखना,” वह पुकारकर बोली जब वह अन्दर को दौड़ा.

“ओके!” लिफ़्ट का दरवाज़ा बंद होने से पहले जवाब में वह तसल्ली देते हुए बोला.

चिन्नी ने अपने दुपट्टे के नीचे छिपे पाऊच को छुआ, और ख़ुश हुई कि अन्दर से उसके मोबाईल के उभार को नमन ने देखा नहीं.

***

नमन ने तीसरी बार जब सोप कैबिनेट की तलाशी शुरू की तो उसके कूल्हे पर एक मुक्का लगा. देखा कि चिन्नी है, जो उसी तरस खाने वाले अंदाज़ में मुस्कुरा रही है, जैसे कि पिछले दो दिन में कई बार देखा था उसने.

“वो रहा, देखो,” वह टिश्यू होल्डर की तरफ इशारा करके बोली, जहां उसने अभी अभी चुपचाप अपना मोबाईल ठूंस दिया था.

“आय ऐम सो सॉरी,” वह हक्का बक्का होकर बोला, “पर कसम से, ये यहाँ पे नहीं था जब…”

अचानक शक होने पर वह बीच वाक्य में ही रुका. नज़र उठाकर देखा तो चिन्नी ने आँखें मटकाईं, और उसकी दबाई हुई मुस्कान उसके गालों पर आकर फूल गई.

“चीज़ें ढूँढने की कला सिखानी पड़ेगी तुम्हें,” वह नमन के साथ बाथरूम से निकलती हुई बोली.

वह शर्माकर ज़रा लाल हुआ, पर इससे पहले कि वह कमरे से बाहर निकल पाता, चिन्नी ने दरवाज़े को नॉब से धकेलकर बंद कर दिया. “तुम्हें प्यास नहीं लगी?”

इससे पहले कि वह उसकी बात का मतलब बूझ पाता, चिन्नी ने दरवाज़े के अहाते में रखे एक कार्टन से मिनरल वॉटर की एक छोटी सी बोतल निकाली. अपना पूरा मुंह लगाकर एक लम्बा सा घूँट पीने लगी तो वह अपनी साँसें थामकर देखता रहा. फिर वह रुकी, और जीभ को बोतल के सिरे पर धीरे से फिराया.

अब, बोतल के ढक्कन को लगाते हुए उसे एकटक देखने लगी. पहले उसकी आँखों में, फिर नीचे, फिर और नीचे.

वहाँ उसकी नज़रें जाकर कुछ देर ठहरीं, फिर अचानक ऊपर उठकर नमन की आँखों पर अपना बाण चलाया.

वह ज़रा बेचैन हुआ, पर ख़ुद को मुस्कुराने से रोक नहीं पाया.

लेकिन चिन्नी गंभीर थी.

आगे बढ़ी, उसके कमर के पीछे अपने हाथ बढ़ाकर उसे दबोचकर हुक्म देकर बोली, “कपड़े उतारो मेरे.”

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