“फिर वही चाँद” कड़ी-८

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Aparajita  चौधरी स्मारक अस्पताल की नई मैटर्निटी विंग के निर्माण में लगी महिला मज़दूरों में से सबसे ख़ूबसूरत थी ईलांजरी. पर साईट पर कभी कभी पधारने वाले सुकुमार चौधरी के जवान रूपवान ड्राईवर क़ासिम पटवारी को उसकी आँखों की उदासी ने आकर्षित किया था. क़ासिम और ईला दोनों ही बेघर और अनाथ होकर लखनाबाद पहुंचे थे. ईला घड़ोरी के अकाल से पीड़ित थी, तो क़ासिम दुईपारा की बाढ़ से.

बहुत ज़्यादा समय नहीं लगा ईला को क़ासिम के प्यार को अपनाने में. जल्द ही विशेष विवाह अधिनियम के तहत उनकी शादी हो गई, और मैटर्निटी वार्ड के तैयार होते होते ईला ने गर्भ धारण भी कर लिया.

चौधरी स्मारक अस्पताल में जन्म लेने वाले सबसे पहले बच्चों में से एक थी उनकी अपूर्व सुन्दर बिटिया. उसे एक नज़र देखते ही ईला और क़ासिम अपने सारे पुराने दु:ख दर्द जैसे भूल ही गए. एक साथ पार किये सारे विघ्नों को याद करके, और भविष्य की फ़तहों को सलाम करते हुए उन्होंने अपनी नन्ही सी जान का नाम रखा ‘अपराजिता’ – जो कभी पराजित नहीं की जा सकती.

लेकिन उनकी ख़ुशियाँ ज़्यादा दिन नहीं टिकीं. क्योंकि भले ही ईला को उनके जीवन के स्तर से कोई आपत्ति नहीं थी, पर क़ासिम पर फ़ितूर सवार हो गया कि नन्ही अपू को दुनिया भर की आराम की चीज़ें, सबसे बेहतरीन तालीम, वगैरह सब कुछ दिलाना है. वह रात दिन एक करने लगा, चौधरी परिवार के ड्राईवर वाली नौकरी से जो समय बचता, उसमें भी छोटे मोटे काम धंधे करने लगा.

जल्द ही ईला ने अफ़वाह सुनी कि क़ासिम कुछ ग़ैर कानूनी कामों में भी उलझ रहा है. जब उसने इस बारे में उससे सवाल किया, तो वह कोई बहाना करके जवाब देने से मुकर गया, जिससे उसका शक़ और  मज़बूत हो गया. पर एक दिन जब वह नन्ही अपू की कसम खाकर बोला कि वह कुछ भी ग़ैर कानूनी नहीं कर रहा है, तब जाकर उसे तसल्ली हुई. पर अगले ही सप्ताह उसकी जान गले में अटक गई – जब अपने मालिक की पत्नी की हत्या के लिए क़ासिम गिरफ्तार हुआ.

सलाखों के पीछे से क़ासिम ने अपनी मासूमियत की बहुत गुहार लगाई. पर ईला ने तय कर लिया था कि बस बहुत हो गया, और उसे तलाक़ दे दिया.

पर जल्दी ही जीना दूभर हो गया उसके लिए. अपनी छोटी उम्र की अकाल वाली पीड़ा भी अब की उस दरिद्रता से बेहतर जान पड़ने लगी जिसमें उसे अपनी छोटी सी बिटिया को भी पालना पोसना था. पर अत्यंत ग़रीबी के अन्धकार में भी ईला किसी ऐसे आरामदेय जीवन की ओर आकर्षित नहीं हुई जिसे पाने के लिए उसे अपनी आत्मा को बेचना पड़ जाए. एक रात तो इतनी बुरी बीती कि उसने ऊपरवाले से यह तक दुआ माँगी कि सुबह जब वह जागे तो बच्ची ज़िंदा न रहे. कम से कम उसके बाद भूख तो नहीं सताती उसे.

उस प्रार्थना का तो ज़रा भी असर नहीं हुआ, क्योंकि अगले ही दिन उसे एक नौकरी मिल गई. एक ऐसे बूढ़े आदमी की देखभाल करने का काम था, जिसके पास न तो कोई अपना कहने को था, और न ही समय ही बाक़ी था इस दुनिया में. ईला ने बेहद तत्परता के साथ उसकी सेवा की, क्योंकि उसकी अपनी बच्ची की जान उस आदमी के जीते तक ही सलामत थी.

उम्र का तकाज़ा कह लीजिये, उस आदमी ने जान लिया कि उसके गुज़र जाने के बाद ईला और उसकी प्यारी सी बच्ची को फिर से इस बेरहम दुनिया का मोहताज होना पड़ जाएगा. ईला ने जितनी उसकी सेवा की थी, उसके बदले में उसके बड़े दिल ने उसे इस मसले का एक हल सुझाया.

जिस दिन वह आदमी मरा, तब ईला उसकी विधिवत् विधवा थी. और उसकी नन्ही सी बिटिया का नाम था अपराजिता सेनगुप्ता.

सेनगुप्ता के छोटे से घर और सामान वगैरह बेचकर जो थोड़े से पैसे मिले, उनसे शुरू कर के ईला ने एक एक ईंट जमा करके अपनी ज़िन्दगी को फिर से संवारा. उस मोहल्ले और उन लोगों से दूर एक ऐसी जगह जाकर घर बसाया कि जहां उसकी पिछली ज़िन्दगी और ख़ासकर क़ासिम की याद दिलाने वाला कोई न हो. अपनी बेटी से भी उसने अतीत के उस राज़ को छुपाये रखा.

अपू को तो अपने असली वालिद याद ही नहीं थे. अट्ठारह बरस की उम्र तक वह अपने आप को सेनगुप्ता की ही बेटी समझती रही.

पर एक दिन जब अपराजिता किसी एक मज़हब की कुछ बातों की तारीफ़ें करने लगी, तब ईला अपने स्वभाव के विपरीत आग बबूला हो उठी. और जब अपू बहस करने लगी, तो अचानक वह शांत भी हो गई, माफ़ी तक मांगने लगी – जोकि उसके स्वभाव के और भी विपरीत था.

अपू को शक़ हुआ. पर ईला के मुंह पर तो इस बात को लेकर जैसे ताला लगा था, इसलिए अपू ने जी जान से जांच पड़ताल की, और क़ासिम के बारे में सब कुछ जान गई, यह भी कि वह जेल में है.

पहली ही मुलाक़ात में अपू जान गई कि उसके वालिद बेक़सूर हैं. तब तक उसका ग्रैजुएशन ख़त्म होने को आया था, और उसने अपने पिता को न्याय दिलाने की ठान ली.

उसने कौशिक सान्याल को ढूंढ निकाला, जोकि एक ऐसा वकील था जो नामुमकिन-से केसेस लड़ने, और निहत्थों को न्याय दिलाने के लिए मशहूर था. अपू से मिलते ही सान्याल को अहसास हुआ कि उसकी तरह वह भी हिम्मत हारने वालों में से नहीं है.

दोनों ने मिलकर खूब तफ़तीश की, पर कोई भी सुराग हाथ नहीं लगा. मिसेज़ चौधरी मर्डर केस की हकीक़त जान पाने का एक ही रास्ता था – और वह था चौधरी परिवार के और करीब होना.

जिस दिन रक्तिम चौधरी ने उसे अपनी कंपनी के ऐक्सटेंशन प्लान का हमराज़ और ऐसोसिएट बनाया था, अपराजिता बेहद ख़ुश हुई थी. अपने पिता की रिहाई की दिशा में उसका यह पहला कदम जो था.

पर सब कुछ तब बदला जब रक्तिम को उससे प्यार हो गया.

और उसको रक्तिम से.

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