“फिर वही चाँद” कड़ी-६

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Aparajita  लखनाबाद सैंट्रल ऐवन्यू पर आगे की चढ़ान गाड़ियों से खचाखच भरी हुई थी. हर तरफ़ कारों में बैठे लोग परेशान थे, पर विक्रम पर यह भारी ट्रैफ़िक जैसे दवा का काम कर रहा था. आज इस भीड़ में वह ज़रा कम अकेलापन महसूस कर रहा था. भले ही कुछ निजी कारणों से वह रक्तिम से चिढ़ता रहा, पर उसके रहते उसे कभी किसी और दोस्त की ज़रूरत महसूस नहीं हुई थी. और आज जब वह नहीं रहा, तब उसे एक दोस्त की कमी खलने लगी. अब उसने सोचा कि अपनी ज़िंदगी में रक्तिम के अस्तित्त्व को बरक़रार रखने के लिए उसे सब कुछ अब रक्तिम वाले अंदाज़ में करना चाहिए. अपनी प्राथमिकताओं को फिर से तय करना चाहिए.

ज़िंदगी ने जब जब चुनौती दी, तब तब रक्तिम ने बिना आनाकानी किये गीयर बदले थे. मिसाल के तौर पर तब, जब उसके पिता सुकुमार चौधरी फ़ैमिली बिज़नैस को बेहद बुरे हाल में छोड़कर परलोक सिधार गए थे. महान चौधरी परिवार के पुरखों की संपत्तियाँ जो कभी ईर्ष्या का केंद्र हुआ करती थीं, उस एक इंसान की भड़कीली जीवन शैली तथा ज़िद और अहंकार से भरे अविवेकपूर्ण निवेश के फ़ैसलों की वजह से बुरी तरह घट गयी थीं. रक्तिम की दादी नयनादेवी ने ख़ानदान की शान-ओ-शौक़त का दिखावा बनाए रखने के लिए बची खुची संपत्ति भी बेचकर मामले को और भी बिगाड़ दिया.

हालांकि ठाकुरमाँ को बहुत जल्द अपनी ग़लती का अहसास हुआ, पर रक्तिम ने उन्हें कभी दोष नहीं दिया. बस उन्नीस बरस की उम्र थी उसकी उस वक़्त, और वह देश के एक सर्वोच्च इंजीनियरिंग कॉलेज में पढ़ रहा था. पर उसने अपनी पढ़ाई बीच ही में छोड़कर, अपनी ही योग्यता के बल पर कुछ लोन हासिल किये, और अपने ही बल पर एक छोटी सी मार्केटिंग एजेंसी शुरू की. आज का चौधरी ग्रुप ऑफ़ इंडस्ट्रीज़ सिर्फ़ और सिर्फ़ उसी की मेहनत और लगन का नतीजा था. चौधरी परिवार आज जिस अमीरी के सुख भोग रहा था, वह अकेले रक्तिम ही ने पाई पाई जमा करके बनाई थी.

ट्रैफ़िक ज़रा ढीली हुई, पर तब तक विक्रम का इरादा सख्त़ हो चुका था कि अब वह बाक़ी बातें भूलकर अपने लक्ष्यों पर तवज्जो देगा. सारा समय अपने रेस्टॉर्रेंट के बिज़नैस पर लगा देगा.

बहरहाल, अगले ही सिग्नल पर, इरादा बनाने में जितना समय लगा था, उसके अंश भर ही में वह डगमगाने लगा. दायीं ओर की एक ऊंची होर्डिंग पर से उसके सपनों की मलिका अनन्या चोपड़ा उसी पर नज़रें गाड़े हुए थी. उसके क्लोज़ अप से लग रहा था कि मोतियों की कई लड़ियों के अलावा उसने कुछ नहीं पहना है. उसकी आँखों की ललचाती अदाओं से वह बैठा बैठा कसमसा गया, और विज्ञापन के स्लोगन ने तो और भी बेहाल कर डाला. लिखा था, “ख़ुशियों से लपेट लो मुझे.”

अब भी विक्रम अपने दिमाग को भटकने से रोक सकता था, पर इश्तिहार के ब्रैंड लोगो ने बाक़ी क़सर भी पूरी कर दी. “पर्ल्स फ्रॉम चौधरी”. अनन्या का दिल जीतने के मामले में मरने के बाद भी रक्तिम चौधरी अड़चन बना हुआ था. इससे पहले कि अनन्या अपने दिल में रक्तिम की जगह किसी और को बिठा दे, जाकर उससे मिलना बहुत ज़रूरी था.

जब विक्रम की गाड़ी अनन्या के अपार्टमैंट कॉम्प्लैक्स में दाख़िल हुई, तो उसने लखना टीवी की एक वैन को वहां से निकलते देखा. उसमें प्रभाकर की एक हल्की सी झलक देखी तो वह अचानक सतर्क हुआ, फिर हारकर उसने गहरी सांस ली. जैसे पहले उसे एक पल को शक़ हुआ था, अब साफ़ ज़ाहिर था कि अनन्या ने ही अपराजिता को परेशान करने के लिए उन मीडिया वालों को भेजा था.

लिफ़्ट में घुसते ही विक्रम को इन हालात में छिपा अपना मौक़ा नज़र आ गया. अनन्या की इस बचकानी और जल्दबाज़ी वाली चाल से समझ में आ रहा था कि वह कितनी असुरक्षित महसूस कर रही है. इसका फ़ायदा तो उसे उठाना ही होगा.

***

“रक्तिम आपका बेटा नहीं था!!” बिपाशा ने चिल्लाकर मधुमिता से कहा. “सिर्फ़ हमारे पापा से शादी कर लेने से आप हमारी माँ नहीं बन गयीं!” इतना कहकर वह हॉल से तेज़ी से निकल गयी.

अपराजिता को इस सच्चाई का पहले से पता था, पर उसे बिपाशा से यह उम्मीद नहीं थी, कि मधुमिता से इतनी कठोरता से पेश आयेगी. ख़ासकर क्योंकि अभी अभी उनके अपने बच्चे प्रतिम और ऊर्वशी उन्हें बहुत कुछ बुरा भला कह गए थे.

मधुमिता अपने आंसू रोक नहीं पायीं, और पलटकर अपने कमरे की ओर बढ़ गयीं. अपराजिता को बुरा लगा. यह सब उन्हें सिर्फ़ इसलिए सहना पड़ रहा था क्योंकि उन्होंने तह-ए-दिल से उन मीडिया वालों के सामने उसे अपनी बहू कहा था. पर अब बाक़ियों की नफ़रत के पहाड़ को लांघना उनके लिए भी नामुमकिन था.

अपराजिता ख़ुद भी अब तक बहुत थक चुकी थी. पहले तो उसने सोचा कि उसके लिए सुनिश्चित गैस्ट रूम में जाकर थोड़ा आराम कर ले. पर जब उसने पहली मंज़िल पर सीढ़ियों के पास रखे कैंडलस्टिक टेलीफोन को देखा, तब उसका इस्तेमाल करने का निर्णय लिया. वह सीढ़ियों पर चढ़कर बेहतरीन कारीगरी वाले काठ के फ़ोन टेबल पर विराज रहे उस पुराने काले-सुनहरे यंत्र की ओर बढ़ी.

इस बीच नयनादेवी अपने कमरे में आँखें बंद किये अपनी साँसों को नापती हुई ध्यान मुद्रा में थीं. जब भी कोई बात उन्हें अपने दिमाग़ से निकालनी होती थी, वह यही करती थीं. अपने मशहूर साहस प्रदर्शन की आदत की वजह से उन्होंने किसी से अपनी अवस्था का इज़हार नहीं किया था, पर सच यह था कि रक्तिम की मौत ने उन्हें बुरी तरह झकझोर दिया था. उनके पति और बेटे की मौत से भी ज़्यादा. रक्तिम के हादसे के बाद पिछले दो दिनों में जो कुछ हुआ था, वह कुछ भी नहीं था उस दर्द के आगे.

पर इतने दशकों से अनुलोम विलोम पर महारत हासिल करने के बाद भी आज कोई फ़ायदा नहीं हो रहा था. दिमाग के कोनों में अब तक दबाये रखे अनसुलझे मसलों की तादाद हद पार कर चुकी थी. आज उमड़ने लगे थे वह सब.

उन्हें लगा कि वह रोने लगी हैं. और यह उन्हें ज़रा भी अच्छा नहीं लगा.

आँखें खोलीं. तब समझ में आया कि रो तो कोई और रहा है. दरवाज़े के बाहर से सिसकने की दबी दबी आवाजें आ रही थीं. वह चुपचाप उठीं और बाहर झांककर देखा.

अपराजिता की पीठ उनकी तरफ़ थी. सुबकती हुई फ़ोन पर बोल रही थी, “नहीं माँ, अब मुझसे बर्दाश्त नहीं हो रहा है. यहाँ सब मुझसे नफ़रत करते हैं. हाँ, की मैंने कोशिश, सोचा था रक्तिम की आत्मा को शान्ति मिलेगी अगर मैं उनके परिवार के साथ रहूँगी. पर मैं जान चुकी हूँ मेरे यहाँ रहने से इस घर में तनाव ही बढ़ सकता है, और ये मुझे मंज़ूर नहीं है! मैं कल सुबह ही घर लौट आऊँगी, माँ. नहीं, किसी को मत भेजिए, मैं ख़ुद ही आ जाऊंगी. बाय, माँ.”

नयनादेवी देखती रहीं जब अपराजिता ने रिसीवर को खूंटी पर टांगा, और अपने जज़्बात के भार को ढोती हुई धीरे धीरे जाने लगी.

“ठहरो, बोऊमाँ.”

अपराजिता रुकी. यस्स!!

बूढ़ी ठाकुरमाँ के कमरे तक आवाज़ पहुँचने की दूरी पर रखे फ़ोन पर बात करने की तरकीब आख़िर कामयाब हुई. यंत्र में रीडायल की सुविधा न होने के कारण किसी को यह भी पता नहीं चलना था कि उसने कोई नम्बर घुमाया ही नहीं था. वह बस यह उम्मीद करने लगी कि ठाकुरमाँ को उसके रुआंसा स्वर और फ़ोन पर कही बातों से इत्मीनान हो जाए कि उसके इरादे पूरी तरह नेक थे. नयनादेवी का मत हासिल करना महत्त्वपूर्ण था; उससे सारा खेल उसके पक्ष में हो सकता था. अगर उन्होंने अब उसे आशीर्वाद दे दिया, तो उनके पोते-पोतियों का विरोध हमेशा के लिए शांत हो सकता था.

नयनादेवी ने देखा कि अपराजिता ने कुछ समय लेकर अपने आंसू पोंछे, और फिर मुड़कर स्नेह और आदर भरी मुस्कान के साथ पूछा, “जी, ठाकुरमाँ?”

ठाकुरमाँ ने गहरी सांस लेकर इशारे से अपराजिता को पास बुलाया. फिर उसका हाथ पकड़कर अपने कमरे में ले गयीं, और अपनी कुर्सी पर बिठाया. कोने वाली आलीशान अलमारी की ओर जाकर उसका दरवाज़ा खोला, और कुछ पल के लिए उसके पीछे ग़ायब हुईं. फिर जब निकलीं, तब अपराजिता स्तब्ध हुई. नयनादेवी के हाथ में सोने के दो मोटे कंगन थे पुराने.

“मेरी सास ने मुझे दिए थे,” पास आकर उसकी हथेलियों में उन्हें रखकर बोलीं. शायद बाईस कैरट के थे, और बेहतरीन पोलकी जड़े हुए.

अपराजिता की आँखें भर आयीं. उसे विश्वास नहीं हो रहा था कि उसकी चाल इतनी जल्दी यह रंग लायेगी. उसे स्वीकृति का वह ठप्पा मिल गया था जिसपर उसकी नज़र थी.

“मैं चाहती हूँ कि कल तुम ये कंगन अपने साथ लेकर जाओ.”

***

भूरे मग पर अनन्या की गोरी पतली उँगलियों की जकड़ उसे तरसाने सी लगी थी. खुरदुरे मिश्रण और सिरैमिक पर स्टील के चमचे के रगड़ने की लयबद्ध आवाज़ लगभग मादक सी थी. उस लुभावनी ख़ुशबू को अपनी साँसों में भरते हुए विक्रम को यकीन नहीं हुआ कि वह इतना कुछ कर रही है. बाहर से मंगवाई थाई डिनर के बाद उसने कहा था कि अब उसे निकलना चाहिए, पर अनन्या ने जोर दिया था कि वह कॉफ़ी अच्छी बनाती है. लग रहा था कि वह आज की रात अकेली नहीं गुज़ारना चाहती. और वह तो था ही उसकी सेवा में हाज़िर.

आख़िर गरमागरम दूध मिलाकर उसने मुस्कुराकर विक्रम को कॉफ़ी थमाई. पहली चुस्की ली. कुछ ज्यादा ही मीठी थी, लेकिन उसने तारीफ़ में अपना सर हिलाया.

जब गर्माहट अंतड़ियों में पहुँचने लगी, तब उसकी सोच की तेज़ी बढ़ी और वह बोला, “पता नहीं रक्तिम को अपराजिता में क्या नज़र आया.”

“क्या मतलब?” अनन्या ने अचानक ठिठककर पूछा, “तुम्हें विश्वास भी हो गया कि रक्तिम उसे जानता था?”

उसके अंदाज़ से विक्रम के दिमाग में पनप रही उम्मीदों पर अचानक पानी फिर गया. अनन्या अब भी रक्तिम पर ही फ़िदा थी.

पर रक्तिम मर चुका था. लिहाज़ा कोशिश जारी रखना ज़रूरी था. “अनन्या, हम दोनों के लिए रक्तिम काफ़ी स्पैशल था. हम उसकी यादों को हमेशा संजो के रखेंगे.”

पर अनन्या का अब उस पर ध्यान नहीं था. वह मोबाईल पर कोई नंबर डायल कर रही थी. “हैलो, ऊर्वशी! जीडी की अगली फ़िल्म के लिए तुम्हारी सिफ़ारिश करने से पहले मैं तुम्हारा ऐक्टिंग कैलिबर देखना चाहती हूँ! तुम्हें अपने घर में सबसे ये कहना होगा कि तुम्हारे रक्तिम दा ने एक मंदिर में मुझसे शादी की थी, और तुम उस रस्म की गवाह थी.”

विक्रम झुलस गया.

“क्यों? क्या तुम उस ढोंगी अपराजिता को वहां से भगाना नहीं चाहती?” अनन्या ने प्यार से समझाने की कोशिश की, “देखो तुम्हारे भैया और मैं एक दूसरे से प्यार करते थे. और मुझे मंज़ूर है, बल्कि मैं चाहती हूँ, कि मैं अपनी बाक़ी की ज़िंदगी उनकी विधवा बनकर गुज़ार दूं.”

विक्रम के अन्दर उमड़ रही कड़वाहट को उस कॉफ़ी की ढेर सारी मिठास भी नहीं मिटा पायी.

“क्या? सच? ओ… फिर… ठीक है,” अनन्या ने अटपटे ढंग से मुस्कुराकर बुदबुदाया और फ़ोन काटा. फिर रुककर विक्रम को ख़बर दी, “अपराजिता कल चौधरी भवन हमेशा के लिए छोड़कर जा रही है.”

***

अगला दिन अपराजिता की इच्छा से कुछ पहले ही आ पहुंचा था.

जब वह हॉल में अपना लाल सूटकेस लेकर पहुँची, बाहर से बिपाशा भी एक सूटकेस लिए अन्दर आ रही थी. दोनों एक दूसरे को देखकर हैरान से रुके. इतने में दो और लगेज का सामान लिए अंशुमन भी बिपाशा के पीछे आया और रुकने लगा.

“जा रही है,” नयनादेवी ने सीढ़ियों से उतरते हुए बेपरवाही से कहा. मगर उन्होंने उन ख़ानदानी कंगनों का ज़िक्र नहीं किया जो उन्होंने इस कूड़े से पीछा छुडाने के लिए दान कर दिये थे. “इसलिए अब तुम्हें यहाँ शिफ़्ट करने की कोई ज़रुरत नहीं है, बिपाशा.”

इससे पहले कि बिपाशा बहस करती, उदास-सा लकी भी अन्दर आया. अपना छोटा स्ट्रौली बैग दरवाज़े पर ही छोड़कर वह दौड़कर नयनादेवी के गले लग गया, “गुड मॉर्निंग, ठाकुरमाँ!”

नयनादेवी के मन को बच्चे की उदासी छू गयी, और उन्होंने उसके माथे को चूमा. अब लकी ने अपराजिता को देखा.

“आप मामी हैं न?” वह अचानक चहककर बोला.

इससे पहले कि बिपाशा उसे डांट पाती, लकी तेज़ी से अपराजिता की ओर बढ़ा. “क्या मैं आपको अपू मामी बुला सकता हूँ? अपराजिता ज़रा लंबा नाम है न!”

अपराजिता ने अटपटे ढंग से हाँ में सर हिलाया.

लकी मुस्कुरा उठा, और कुछ सोचकर दोनों हाथों की मुट्ठियाँ बनाईं. फिर एक मुट्ठी के ऊपर दूसरी रखी, और अपराजिता की तरफ़ एक सवालिया नज़र से देखा.

बाक़ी सब हैरान से देखते रहे. समझ नहीं आया कि लड़का कर क्या रहा है.

अपराजिता भी कुछ देर तक देखती रही, फिर उसने प्यार से मुस्कुराकर लकी की तरफ़ एक कदम बढ़ाया. और अपनी एक एक हथेली से लकी की दोनों मुट्ठियों को थपकी दी – ऊपर वाली मुट्ठी को ऊपर से, और नीचे वाली को नीचे से.

लकी की आँखें आश्चर्य से चमक उठीं. पर उसने तब तक इंतज़ार किया जब तक अपराजिता ने अपने हाथ बदलकर फिर से उसकी मुट्ठियों को थपकियाँ नहीं दे दीं.

और उसके अगले ही पल, सबको चौंकाते हुए लकी अपराजिता से बुरी तरह लिपटकर रोने लगा. वह भी भावुक हो उठी, और उसने अनायास ही उसे जकड़ लिया.

“मामा ने तो कहा था कि हमारे सीक्रेट हैंडशेक के बारे में किसी को नहीं बताएँगे,” आलिंगन में रहकर बिना नज़रें उठाये लकी ने कहा.

उसके बाद जो चुप्पी छायी, वह उलझन से भरी थी. रक्तिम और उसके भांजे के सीक्रेट हैंडशेक के बारे में उनमें से किसीको कुछ नहीं पता था, पर यह ढोंगी जानती थी!

जब बिपाशा के पास वाली दीवार पर इंटरकॉम बजा तो उसने उसी हक्की-बक्की हालत में रिसीवर उठाया. “हम्म…ठीक है.”

ठीक से सुना तक नहीं उसने कि चौकीदार ने कहा क्या, और रिसीवर रखते ही तेज़ी से बढ़कर अपने बेटे को अपराजिता के चंगुल से छुडाकर बोली, “बस बस! जाने दो उनको!”

अंशुमन को न जाने क्यों अपराजिता पर दया आयी. पर चौधरी भवन के मामलों में वह कुछ नहीं बोल सकता था. आखिर चौधरी तो था नहीं वह.

बिपाशा तय नहीं कर पाई कि उसे ख़ुश होना चाहिए या दु:खी. यह ढोंगी औरत उसका मायका छोड़कर जा तो रही थी, पर उसका अपना बेटा इस बात से उदास था, यह उससे हज़म नहीं हो रहा था.

नयनादेवी ने तो जैसे ठान ही ली थी कि अपने फ़ैसले पर अब कोई संदेह नहीं करेंगी. अपराजिता को जाने देना बिलकुल सही फ़ैसला था.

अपराजिता ने एक गहरी सांस छोड़ी, जैसे कि उसने अपनी किस्मत से समझौता कर लिया हो. उसने ख़ामोश खड़े लकी को देखकर हल्का सा मुस्कुराया, और दरवाज़े की ओर फिर बढ़ने लगी.

उसे अभी से बुरा लगने लगा था. तरस आने लगा था उन सब पर.

मन ही मन वह ज़रा चहक रही थी. अब जो होने वाला था, उसके होने पर उन सब की शक्लें कैसी हो जायेंगी, यह जानने के लिए वह बेहद उत्सुक थी.

इससे पहले कि वह दरवाज़े तक पहुंच पाती, चौकीदार मेहमान को लेकर आया. वही मेहमान जिसे बिपाशा ने इंटरकॉम पर बेध्यानी से इजाज़त दे दी थी.

“हैलो, मैं ऐडवोकेट कौशिक सान्याल हूँ,” गाढ़े नीले रंग का सफ़ारी सूट पहने उस अधेड़ उम्र के लम्बे हट्टे कट्टे आदमी ने कहा. “मैं मिस्टर रक्तिम चौधरी की वसीहत लेकर आया हूँ.”

जवाब में अपराजिता अपने सबसे अज़ीज़ मित्र को देखकर मुस्कुरायी.

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